‘सेकुलरिज्म’ और ‘सोशलिज्म’ जैसे मुद्दे वर्तमान समय में राजनीतिक दंगल का अखाड़ा बन गये हैं। कुछ इसके पक्ष में तो कुछ इसके विपक्ष में रहकर तर्कों के तीर छोड़ते रहते हैं। मौजूदा समय में राजनेता इन (‘सेकुलरिज्म’ और ‘सोशलिज्म’) शब्दों के असल मतलब को छोड़ किसी पॉलीटिकल टैग से ज्यादा कुछ नहीं समझते। अब सवाल है कि क्या भारत के संविधान से ‘सेकुलरिज्म’ और ‘सोशलिज्म’ शब्द हटाया जा सकता है। तो इसके जवाब के लिए आपको कुछ दिनों तक और इंतजार करना होगा।
दरअसल, भारत के संविधान की प्रस्तावना से सेक्युलरिज्म और सोशलिज्म शब्द को हटाने की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है। सुप्रीम कोर्ट इस याचिका पर 23 सितंबर को सुनवाई करेगा। शीर्ष अदालत मामले में नई याचिका के साथ ही, इस संबंध में पहले से दायर दूसरी याचिकाओं पर भी सुनवाई करेगा।
भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी की ओर से सुप्रीम कोर्ट में यह नई याचिका दाखिल की गई है। उन्होंने अपनी याचिका में कहा है कि पूर्व प्रधनमंत्री इंदिरा गांधी के शासनकाल में, वर्ष 1976 में 42वें संविधान संसोधन के जरिए प्रस्तावना में ये दो शब्द जोड़े गए थे। सुब्रमण्यम स्वामी केशवानंद भारती केस का हवाला देते हुए कहा है कि प्रस्तावना संविधान के मूल ढांचे का एक हिस्सा है, लिहाजा सरकार उसमें बदलाव नहीं कर सकती।
सुब्रमण्यम स्वामी से पहले वकील विष्णु शंकर जैन ने जुलाई, 2020 में संविधान की प्रस्तावना में 42वें संशोधन के जरिए जोड़े गए धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों को हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। उन्होंने अपनी याचिका में कहा था कि ‘सेक्युलरिज्म और सोशलिज्म’ राजनीतिक विचार हैं। इन्हें नागरिकों पर थोपा जा रहा है।
याचिकाकर्ता जैन ने दलील दी थी कि 1976 में किया गया संशोधन संवैधानिक सिद्धान्तों के साथ-साथ भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विषय-वस्तु के विपरीत था। यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अवधारणा और अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार के उल्लंघन के नजरिए से अवैध था।
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