जीने का अलहदा अंदाज, नवाबी टोपी, मुंह में पान और आदाब…के अपने अलग अंदाज के लिए पहचाने जाने वाले, हर महफिल की शान नवाब जाफर मीर अब्दुल्ला का मंगलवार की शाम विवेकानंद हॉस्पिटल में हृदयगति रुकने से निधन हो गया। किडनी में दिक्कत के चलते उनका लंबे समय से इलाज भी चल रहा था।
वह न केवल लखनवी तहजीब को बढ़ावा देते थे बल्कि उसे जीते भी थे। उनका पहनावा, मिलने का अंदाज, खानपान सब नवाबी था। शायद यही कारण है कि शहर में बनीं कई मशहूर फिल्मों में निर्माताओं ने उन्हें अभिनय का मौका दिया और इसके जरिये उन्होंने अपने लखनवी अंदाज की छाप छोड़ी।
नवाब जाफर मीर कई बॉलीवुड फिल्मों, जैसे ‘गदर-एक प्रेम कथा’ और ‘इश्कजादे’ में कैमियो में दिखाई दिए. ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ में उन्होंने यूपी के राज्यपाल की भूमिका निभाई. बीबीसी मिनीसरीज ‘ए सूटेबल बॉय’ में भी उन्हें देखा गया था।
उनके परिवार में उनके भाई नवाब मसूद अब्दुल्ला (बाएं) और तीन बेटियां शिरीन, निशात और मनरुख हैं। दुनियाभर से लोग उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं।
नवाब जाफर मीर को अनोखी चीजों को इकट्ठा करने का शौक था और वो प्राचीन वस्तुओं और कलाकृतियों के प्रेमी थे. लखनऊ में उनके महलनुमा घर – जिसे शीश महल के नाम से जाना जाता है – में उनका एक अलग कमरा था, जहां उन्होंने अपनी सभी यादगार चीजें रखी थीं।
प्राचीन वस्तुओं में सोने की परत चढ़े झूमर, पीतल के पीकदान और चांदी से बने हुक्के शामिल थे। नवाब मसूद के मुताबिक, “वो लखनऊ की विरासत के संरक्षक थे, और विडम्बना है कि उनका निधन वर्ल्ड हेरिटेज डे पर हुआ। उनके परिवार ने उत्तर प्रदेश सरकार से उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित करने की अपील की है।”
नवाब जाफर मीर, नवाब आसफ-उद-दौला के वंशज हैं, जो 1775 से 1797 तक अवध के शासक थे और उन्होंने लखनऊ में बड़ा इमामबाड़ा का निर्माण शुरू किया था. 17 मार्च 1951 को जन्मे जफर मीर ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से बीएससी (ऑनर्स) और फिर लखनऊ यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई की. 2 नवंबर 1994 को उनके पिता मीर अब्दुल्ला के निधन के बाद, उन्होंने प्राचीन वस्तुओं के पारिवारिक कारोबार को संभाला. इससे पहले उन्होंने एक दवा कंपनी में मैनेजर के रूप में काम किया था।
नवाब जाफर मीर को एक्टिंग, थियेटर और फिल्मों का बहुत शौक था. सात भाई-बहनों में सबसे छोटे नवाब मसूद ने कहा, “उन्होंने कई नाटकों में एक्टिंग की, जो लखनऊ की ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब को दिखाते थे. इनमें जान-ए-आलम, दिल्ली मुशायरे की आखिरी शमा और मैं उर्दू हूं शामिल हैं।”
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