कहना बहुत कठिन है कि अमृतलाल नागर का दिल लखनऊ में धड़कता था कि लखनऊ के दिल में अमृतलाल नागर (Amritlal Nagar) धड़कते थे।‘हम फिदा-ए-लखनऊ’, लखनऊ हम पे फिदा’ की इबारत दरअसल नागर जी पर ऐसे चस्पा होती है गोया लखनऊ और नागर जी दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हों। नागर जी की सभी रचनाओं में सिर्फ एक ही शहर लखनऊ धड़कता है.. एक ही शहर की कहानी होती है फिर भी वह कहानी सबको अपनी ही कहानी लगती है और पूरी दुनिया में छा जाती है। लिखने को तो लखनऊ को बहुत ही लेखकों ने अपनी रचना में लिखा है पर जैसे नागर जी ने लिखा है ,वैसा तो न भूतो न भविष्यति।
पद्म विभूषण नागर (Amritlal Nagar) जी मुंशी प्रेमचंद, कथाकार शरतचंद्र, महाप्राण निराला, जयशंकर प्रसाद जैसे रचनाकारों के सानिध्य में अद्वितीय लेखक बने। ऐसे रचनाकार जिनकी गिनती हिंदी साहित्य के गद्य शिल्पियों में प्रेमचंद के बाद होती है।
अमृत लाल नागर (Amritlal Nagar) जी का जन्म 17 अगस्त 1916 को आगरा के गोकुलपुरा में एक गुजराती परिवार में हुआ था। अर्थोपार्जन की विवशता के चलते इनकी विधिवत शिक्षा हाईस्कूल तक ही हो पाई, लेकिन पढ़ाई के शौक के चलते इन्होंने स्वाध्याय की राह पकड़ी और इस अध्ययन-विधि के तहत साहित्य, इतिहास, पुराण, पुरातत्त्व, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र इत्यादि विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला गुजराती एवं मराठी भाषा का भी यथोचित ज्ञान प्राप्त किया।
उन्होने पहली बार दिसंबर 1928 में पाक्षिक आनंद में एक कविता प्रकाशित की थी। यह कविता साइमन कमीशन के विरोध से प्रेरित थी। जिसमें अमृतलाल को लाठी चार्ज के दौरान चोट लगी थी। कुछ समय तक मुक्त लेखन एवं 1940 से 1947 तक कोल्हापुर में हास्यरस के प्रसिध्द पत्र चकल्लस के सम्पादन का कार्य किया।
अमृतलाल नागर (Amritlal Nagar) ने पढ़ीस के काव्य संग्रह चकल्लस के नाम पर ही अपनी पत्रिका का नाम चकल्लस रखा था। पढ़ीस अवधी के महान साहित्यकार थे। ये बात बहुत मशहूर है कि अमृतलाल नागर उर्दू दास्तानगोई के रसिया थे और एक अफ़ीमची दास्तानगो को रोज़ एक चवन्नी और आम का अचार देकर दास्तान सुना करते थे। इन दास्तानों की नागर जी के लेखक बनने में बड़ी भूमिका है। दास्तान सुनते-सुनते एक दिन नागर जी की इच्छा हुई कि उर्दू लिखना-पढ़ना सीख लिया जाए। इस काम के लिए एक उस्ताद की ज़रूरत थी। उन्हें फ़ौरन बलभद्र प्रसाद दीक्षित उर्फ पढ़ीस याद आए जो कि उर्दू के विद्वान थे और बक़ौल नागर जी बड़ी साफ़ और शुस्ता ज़बान बोलते थे, मौलवी की तरह। नागर जी ने पढ़ीस से उर्दू सिखाने की इल्तेज़ा की, जिसे पढ़ीस ने मुस्कुराते हुए कुबूल कर लिया। नागर जी को इस बात पर हमेशा फख्र रहा कि पढ़ीस उनके उर्दू उस्ताद बनें।
Amritlal Nagar जी ने अपने लेखन में स्त्री-जीवन की समस्याओं को भी बखूबी दर्शाया –
अमृतलाल नागर ने अपने उपन्यासों में स्त्री-जीवन की समस्याओं को सफलतापूर्वक उकेरकर अपनी लिखावट को और तेज करने का काम किया है। इन्होंने अपने उपन्यासों में स्त्री-शोषण से संबंधित समस्याओं, जैसे— दहेज प्रथा, यौन शोषण और बेमेल विवाह इत्यादि को चित्रित किया है। स्त्री-जीवन की समस्याओं को केंद्र में रखकर ही इन्होंने ‘अग्निगर्भा’ उपन्यास की रचना की। इस उपन्यास की कहानी सीता पांडे नामक स्त्री के इर्द-गिर्द घूमती है, जो सुशिक्षित होकर भी निरंतर अवहेलना झेलती रहती है। इस उपन्यास का एक अंश कुछ इस प्रकार है—
“नारी युगों-युगों से प्रताड़ित रही है. कभी उसे चुराया गया तो कभी उसे बेचा गया। आज भी सूनी सड़कों पर नारी का अकेले निकलना कठिन है।”
अमृत लाल नागर (Amritlal Nagar) हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकारों में से एक थे। उन्होंने एक लेखक और पत्रकार के रूप में अपने करियर की शुरूआत की, लेकिन वे 7 साल तक भारतीय फिल्म उद्योग में एक सक्रिय लेखक बने रहे। उन्होंने दिसंबर 1953 और मई 1956 के बीच ऑल इंडिया रेडियो में एक ड्रामा प्रोडयूसर के रूप में काम किया। उन्होंने नाटक, रेडियोनाटक, रिपोर्ताज, निबन्ध, संस्मरण, अनुवाद, बाल साहित्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
नागर (Amritlal Nagar) जी जब अपनी रचनाओं को ऐसे बोल कर लिखवाया करते थे जैसे मानों यह पूरी घटना उनके सामने घटित हो रही हो। उनकी रचनाएं लिखते हुए बहुत लोग लेखक और सम्पादक हो गये। मुद्राराक्षस उन्हीं मे से एक है। अवध नारायन मृदुगल जो बाद में सारिका के सम्पादक हुए ऐसे बहुत सारे लोग है। बूँद और समुद्र तो उन्होंने अपने बच्चों को ही बोल कर लिखवाया था।
भाषा के क्षेत्रीय प्रयोगों को विविध वर्गों में प्रयुक्त भिन्नताओं के साथ ज्यों का त्यों उतार देने में नागर जी को महारत हासिल थी। बोलचाल की सहज, चटुल, चंचल भाषा गम्भीर दार्शनिक सामाजिक प्रसंगों की गुरुता एवं अंतरंग प्रणय प्रसंगों की कोमलता का निर्वाह करने के लिए किस प्रकार बदल जाती है, इसे देखते ही बनता है। सचमुच भाषा पर नागर जी का असाधारण अधिकार है। नागर जी शिल्प के प्रति उदासीन हैं। अपने पुराने शिल्प से आगे बढ़ने की चेष्टा बराबर करते रहे हैं। ‘बूँद और समुद्र’ में पौराणिक शिल्प के अभिनव प्रयोग के अनन्तर ‘अमृत और विष’ में अपने पात्रों की दुहरी सत्ताओं के आधार पर दो-दो कथाओं को साथ-साथ चलाना, ‘मानस का हंस’ में फ़्लैश बैक के दृश्य रूप का व्यापक प्रयोग करना उनकी शिल्प सजगता के उदाहरण हैं।
नागर (Amritlal Nagar) जी को ‘बूँद’ और ‘समुद्र’ पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा का बटुक प्रसाद पुरस्कार एवं सुधाकर रजत पदक, ‘सुहाग के नूपुर’ पर उत्तर प्रदेश शासन का ‘प्रेमचन्द पुरस्कार’, ‘अमृत और विष’ पर साहित्य अकादमी का 1967 का पुरस्कार एवं सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार 1970 तथा साहित्यिक सेवाओं पर युगान्तर का 1972 का पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है।
अमृतलाल नागर जी का निधन सन् 23 फ़रवरी, 1990 ई. लखनऊ में हुआ था। नागर (Amritlal Nagar) जी की कृतियों ने हिन्दी साहित्य की गरिमा बढ़ायी है। नागर जी के तीन रंगमंचीय नाटक एवं 25 से अधिक रेडियो फ़ीचर और बहुत से निबन्ध हैं, जो अभी तक प्रकाशित नही हुए हैं।
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